भजन– “भरत भाई कपि से उरिन हम नाहीं”
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|| भरत भाई कपि से उरिन हम नाहीं ||
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं….
कपि से उरिन हम नाहीं

सौ योजन, मर्याद समुद्र की
ये कूदी गयो छन माहीं.
लंका जारी, सिया सुधि लायो
पर गर्व नहीं मन माहीं.
शक्तिबाण, लग्यो लछमन के..
हाहाकार भयो दल माहीं.
धौलागिरी, कर धर ले आयो.
भोर ना होने पाई.
अहिरावन की भुजा उखारी
पैठी गयो मठ माहीं.
जो भैया हनुमत नहीं होते..
मोहे, को लातो जग माही
आज्ञा भंग, कबहुं नहिं कीन्हीं
जहाँ पठायु तंह जाई.
तुलसीदास, पवनसुत महिमा.
प्रभु निज मुख करत बड़ाई.